UP Power Corporation: उत्तर प्रदेश में बिजली वितरण कंपनियों के निजीकरण को लेकर घमासान मचा हुआ है। जहां एक ओर पावर कॉरपोरेशन घाटे का हवाला देकर निजीकरण को जरूरी बता रहा है, वहीं कर्मचारी संगठनों और इंजीनियर यूनियनों ने खुला मोर्चा खोल दिया है।
भीषण गर्मी में उठा निजीकरण का मुद्दा
UP में मई की तपती गर्मी के बीच एक और चुभती खबर सामने आई है—पूर्वांचल और दक्षिणांचल विद्युत वितरण निगमों का प्रस्तावित निजीकरण। यह कदम आम उपभोक्ता से लेकर कर्मचारी तक, सबको प्रभावित कर सकता है। इस निर्णय के पक्ष और विपक्ष में कई तर्क हैं और हर पक्ष का अपना दृष्टिकोण है।
क्यों उठता है बार-बार निजीकरण का मुद्दा?
UP की बिजली व्यवस्था को लेकर लंबे समय से निजीकरण की बातें होती रही हैं। कभी उपभोक्ताओं की सेवा सुधारने के नाम पर, तो कभी घाटे को पाटने के लिए इस मुद्दे को उछाला जाता रहा है। लेकिन सवाल यही उठता है कि हर बार विरोध क्यों होता है और आईएएस अफसरों द्वारा नियंत्रित प्रबंधन इसे क्यों समर्थन देता है?
घाटे का गणित: निजीकरण का आधार?
UP पावर कॉरपोरेशन का कहना है कि राज्य की बिजली कंपनियां लगभग 1.10 लाख करोड़ रुपये के घाटे में हैं। साल 2000 में यह घाटा महज 77 करोड़ था, जो अब हजार गुना से भी ज्यादा हो गया है। सरकार को हर साल सब्सिडी और लॉस फंडिंग देनी पड़ रही है। उदाहरण के लिए:
- 2020-21 में 8,000 करोड़ रुपये की सब्सिडी दी गई
- 2024-25 में यह बढ़कर 46,000 करोड़ तक पहुंचने की आशंका
- 2025-26 में 50-55 हजार करोड़
- 2026-27 में 60-65 हजार करोड़ का अनुमान
प्रबंधन का कहना है कि अगर यही सिलसिला चला तो बिजली व्यवस्था संभालना असंभव हो जाएगा, इसलिए निजीकरण आवश्यक है।
इंजीनियरों और कर्मचारियों की आपत्ति
बिजली इंजीनियर यूनियन और कर्मचारी संगठन संघर्ष समिति इस पूरे तर्क को खारिज करते हैं। उनके अनुसार:
- राज्य के उपभोक्ताओं पर 1.15 लाख करोड़ रुपये से ज्यादा का बकाया है। अगर यह वसूला जाए तो घाटा खत्म हो सकता है।
- घाटे की असली वजह महंगे बिजली खरीद अनुबंध (Power Purchase Agreements) हैं, जिन्हें प्रबंधन ने बिना पारदर्शिता के किया।
- 2024-25 में सिर्फ इन करारों की वजह से बिना बिजली लिए भी 6,761 करोड़ रुपये का भुगतान करना पड़ा।
संघर्ष समिति के संयोजक शैलेंद्र दुबे ने साफ कहा कि इंजीनियरों ने यह अनुबंध नहीं किए, लेकिन दोष उन्हीं पर मढ़ा जा रहा है।
क्या निजीकरण से उपभोक्ताओं को राहत मिलेगी?
प्रबंधन का दावा है कि निजी कंपनियां बेहतर सेवा देंगी। प्रतिस्पर्धा बढ़ेगी, जवाबदेही मजबूत होगी और सरकार को सब्सिडी का बोझ नहीं उठाना पड़ेगा। ग्रेटर नोएडा और आगरा को उदाहरण बताकर बताया जाता है कि वहां बिजली व्यवस्था बेहतर है।
लेकिन इंजीनियरों की दलील है कि:
- निजी कंपनियां ग्रामीण और किसान उपभोक्ताओं की अनदेखी करती हैं।
- उनका ध्यान सिर्फ औद्योगिक और वाणिज्यिक उपभोक्ताओं पर रहता है।
- ग्रेटर नोएडा की बिजली कंपनी पर खुद राज्य सरकार सुप्रीम कोर्ट में लाइसेंस रद्द करने का केस लड़ रही है।
बिजली महंगी होगी या नहीं?
कॉरपोरेशन का दावा:
बिजली के रेट तय करने का अधिकार निजी कंपनियों के पास नहीं है, यह काम राज्य विद्युत नियामक आयोग करता है। इसलिए निजीकरण का मतलब बिजली महंगी होना नहीं है।
विरोधियों की बात:
ग्रामीण क्षेत्रों में सब्सिडी हटाई जाएगी, क्योंकि सरकार अब अधिक बोझ नहीं उठाना चाहती। इससे सीधे तौर पर बिजली दरें बढ़ेंगी। अगर प्राइवेट कंपनियों को भी सब्सिडी देनी है तो फिर सरकारी व्यवस्था क्यों न रहे?
क्या कर्मचारियों का नुकसान होगा?
कॉरपोरेशन का आश्वासन:
- कर्मचारियों को तीन विकल्प मिलेंगे:
- मौजूदा स्थान पर बने रहना
- यूपीपीसीएल या किसी अन्य इकाई में स्थानांतरण
- वीआरएस लेना
- सेवा शर्तें यथावत रहेंगी या बेहतर की जाएंगी।
संघर्ष समिति की चिंता:
- बैठकों में कभी भी सेवा शर्तों पर स्पष्ट बात नहीं हुई।
- छोटी-छोटी निजी कंपनियों में इंजीनियर और कर्मचारी नहीं जाना चाहेंगे।
- रियायती बिजली, भत्ता और स्थायित्व की गारंटी नहीं मिलेगी।
- वेतन और सुविधाएं निजी कंपनियां अपने हिसाब से तय करेंगी।
अब तक निजीकरण के प्रयासों का इतिहास
वर्ष | घटनाक्रम |
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1993 | ग्रेटर नोएडा में NPCL को बिजली वितरण का जिम्मा मिला, विरोध हुआ |
2006 | लेसा के ग्रामीण क्षेत्र में फ्रेंचाइजी मॉडल लाने की कोशिश, मामला फंसा |
2010 | आगरा में टोरंट को बिजली सप्लाई दी गई, विरोध के बावजूद लागू रहा |
2013 | PPP मॉडल पर कानपुर, मेरठ, वाराणसी और गाजियाबाद में योजना, रोक लग गई |
2020 | पूर्वांचल में निजीकरण प्रयास, इंजीनियरों और सरकार के बीच समझौता हुआ |
पूर्वांचल और दक्षिणांचल में नया ढांचा क्या होगा?
- इन क्षेत्रों को कुल 5 निजी कंपनियों के बीच बांटा जाएगा
- पूर्वांचल: 3 कंपनियां
- दक्षिणांचल: 2 कंपनियां
- हिस्सेदारी का ढांचा:
- निजी क्षेत्र: 51%
- राज्य सरकार: 49%
- कंपनियों के अध्यक्ष होंगे राज्य के मुख्य सचिव
- एमडी होंगे निजी कंपनी के प्रतिनिधि
- डायरेक्टर बोर्ड में दोनों पक्षों के सदस्य होंगे
समाधान की राह टेढ़ी
UP में बिजली निजीकरण का मसला घाटे की भरपाई से जुड़ा जरूर है, लेकिन कर्मचारी संगठनों की आपत्तियां भी बेमानी नहीं हैं। आम जनता के लिए सवाल यह है कि क्या इस बदलाव से उन्हें राहत मिलेगी या आने वाले दिनों में उन्हें और महंगी बिजली और अनिश्चित सेवा का सामना करना पड़ेगा? जवाब अब भी हवा में है।